सभी को सादर जय जिनेंद्र। बुधवार ६ जुलाई २०१६ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया।
आचार्य कुँथुसागर महराज की जय। (दीक्षा दिवस)
आज का विचार : दाता की भावनाएं दिए गए दान की विशुद्धि को और बढ़ा देती है।दाता को पात्र के प्रति कृतज्ञता के भाव रखने चाहिए क्योंकि लेने वाला देने वाले से बड़ा होता है, यही शिक्षा मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज हमें दे रहे हैं।
कई बार दान देने के बाद भी लोभ जाग्रत हो जाता है की इतना नहीं देना था थोडा कम दे देते तो अच्छा रहता|
इस लोक या परलोक में मुझे यश मिलेगा दान देने से ऐसी आकांशा नहीं रखना|
मुझे तो दान देने का अवसर मिला बस मुझे तो इसी में संतोष है| ऐसा भाव होना चाहिए|
टूटी फूटी पूजा - क्रिया में टुटा फुटा पन हो सकता है लेकिन भावो में बहुत चोखा पन था और यही महत्वपूर्ण है|
हमारे मन में अगर भावनायो की निर्मलता है तो सारे काम आसान है|
अगर परिणाम निरमल है तो परिणाम मुख्य है|
जिसको जितनी आकुलता उसको उतनी देर|
दान देना मेरा फ़र्ज़ है यह तो मेरा कर्तव्य है|
सतना की एक घटना सुनाता हूँ:
दोनों भईया में वर्षो से बोल चाल बंद हो गयी थी और बड़े भैया के यहाँ चोका लगा तो आहार देने के लिए छोटे भईया नहीं आये क्यूंकि बोल चाल बंद है | लेकिन जब छोटे भैया के यहाँ चोका लगा तो बड़े भैया तो हमरे साथ रोज ही आहार में जाते थे रोज का नियम था उनका अब ठीक है छोटे भैया के यहाँ हो रहा है हमारा आना जाना १५ (15) साल से बंद है इसके बावजूद भी वे उनके यहाँ पर मेरे साथ साथ चले गये और जैसे ही बड़े भैया को अपने घर में घुसते देखा| छोटे भैया के परिणामो में अब परिवर्तन होना शुरू हुआ| महाराज आये सो आये ये तो मेरा सोभाग्य और जिनको में करोड़ रुपए देकर भी अपने घर की सीडी चड़ने के लिए कहता तो भी नहीं चड़ते वे भी आज महाराज के पीछे पीछे आ गये| मैं तो इनके घर नहीं गया था छोटा था चला जाता तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन ये बड़े होने पर भी मेरे घर आ गये हैं| दान देना तो एक तरफ रहा मुझे बिडाल कर के आंसू पोछने लगे| बड़े भैया चुप चाप खड़े हैं छोटे भैया पड़गा के लियाए हैं और पैर धुला रहे हैं में सोच रहा हूँ की मेरे आने से गद गद हैं| वो तो था ही लेकिन उनके मन में ये भी भाव था की महाराज आये तो ठीक है लेकिन बड़े भैया भी और फिर उसके बाद उनका बोल चाल कब कैसे शुरू हो गया कुछ कहने की आवश्यकता नही पड़ी| मेरे साथ सिर्फ उन्होंने यही कहा की आज तक आप जो कहते थे आज मुझे लगता है की ठीक है| कोई मेरे घर में आपको आहार देने आये तो आज के बाद से में अपना सोभाग्य मानूंगा| अभी तक तो मैं सोचता था की काहें को दुसरे के घर में देने चले जाते हैं लोग| अब मुझे लगता है की बहुत अच्छा है हम किसी को अपने घर में करोड़ रुपए देकर के भी बुलाये तो हमारे घर की सीडी नहीं चढ़ेगा वो हमारे बिना बुलाये हमारे घर में आया है वो हमारे घर में नहीं महाराज आये हैं इसलिए उनके साथ आया है वैसे वो अपने घर का रहिस है हमारे घर में बुलाने पर आयेगा नहीं लेकिन हमारे घर बिना बुलाये आया है वो भी मेहमान है| उसके प्रति हमारे मन में हम दिला पाए या ना दिला पाए उससे दान आहार लेकिन हमारे मन में उसके प्रति मात्सर्य नहीं होना चाहिए| हम अपना मन उसके प्रति अच्छा ही रखे की आओ आओ ऐसा लिखा है नन्दीश्वर भक्ति में बुलाते हैं देव आओ आओ सब आओ इंद्र महाराज जल्दी आओ अभिषेक करो| क्या ऐसे ही हम ऐसे सी भाव से भर कर की हाँ सब आओ सब आओ मेरे यहाँ महाराज आये हैं मेरे को दान देने का सोभाग्य मिला है आप सब इसमें शामिल हो क्या ऐसे परिणाम कभी हुए अपने| कोई आये या नहीं आये ऐसे परिणाम रखने चाहिए अपने मैं आपसे कहना यही चाह रहा हूँ| वास्तव में दान की परिक्रिया हमारे अपने धर्म ध्यान की परिक्रिया है हमारे जीवन को ऊँचा उठाने वाली एक परिक्रिया है अगर हम इसे ठीक ठीक समझ के अपने जीवन में एक प्रेरणा ले अपने जीवन को अच्छा बनाये|
Thought of the day:In the process of giving we must be thankful and indebted to the taker that he gave us the opportunity for accumulating Punya and eradicating Karma. Munishri Kshamasagarji explains to us why it is a matter of great fortune to find someone worthy of accepting our charity.
मैत्री समूह
9827440301
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मुनिश्री की वाणी में अन्य Clippings सुनने के लिए यहाँ click करें
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